17 August 2005

परिचय

hemant-2

16 अप्रैल 1978 को होशंगाबाद में जन्में हेमन्त कुमार रिछारिया ने समाजशास्त्र में एम॰ए॰ करने के उपरान्त एक्सपोर्ट मैनेजमेण्ट में डिप्लोमा किया है। हिन्दी साहित्य में आपकी अभिरुचि है। आप हिन्दी की गद्य, पद्य, व्यंग्य और ग़ज़ल विधाओं में काव्य सृजन कर रहे हैं। पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन होता रहता है। विश्व जाल पत्रिका अनुभूति एवं हिन्दी नेस्ट पर आपकी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं।
* सम्प्रति- संपादक, सरल चेतना पत्रिका
* सम्पर्क सूत्र- कमिश्नर कार्यालय मार्ग
कोठी बाजार, होशंगाबाद म॰प्र॰ 461001
दूरभाष- 07574-252103
मोबा॰- 9827271544
ई मेल- he_ma_t@yahoo.com

12 June 2005

कविता-1

  • घरौंदा

गोबर से लिपा कच्चा आँगन

आँगन के कोने में बैठी

वो नन्हीं मासूम बच्ची

व्यस्त है अपने खेल में,

कर रही है कोशिश

शायद कुछ बनाने की

धरती के उस टुकड़े को

वह बुहारती हैपानी से सींचती है,

खोज लिए हैं उसने कहीं से

लकड़ी व चार टुकड़े

चार टुकड़े बन गए है अब

चार दीवारेंपत्तों की छत बना डाली

नन्हें हाथों ने जमा दिया

चुन–चुन कर सामान करीने से

नन्हा चूल्हा, विस्तर, किताबें,

गुड़िया, झूला और भीजाने क्या–क्या

शाख से झरे सूखे फूल चुने और बिछा कर

बना डाला एक बगीचा

अब देख रही हैसिर घुमा–घुमाकर

और हो जाती हैमन ही मन खुश

पूछ लिया,यूँ ही अचानक मैंने

क्या कर रही हो ?घल बना लही हूँ

और हँस पड़ी खिलखिलाकर

घूमने लगा मेरा मन

बचपन के कल्पना लोक से

आज के यथार्थ तक

काश ! ऐसे ही बन जाता एक घर

ऐसी ही मिल जाती निश्चिन्तता

और ऐसी ही मिल पाती

दूधिया हँसी !

***

-हेमन्त रिछारिया

कविता-2

  • मजदूर
देखो ये मजदूर हैं।
हाँ हाँ ये मजदूर हैं।।
कठिनाइयों के साए में पले,
सुखी जीवन से कहीं दूर हैं।
हाँ हाँ ये मजदूर हैं।।
राह पथरीली संकरा गलियारा
बाहों का ना कोई सहारा।
भरी दुपहरी है फिर भी
बोझा ढोने को मजबूर है।
हाँ हाँ ये मजदूर हैं।।
घास फूस से बने घरों में
जब जीवन सिसकी लेता है
आँखों से झरता पानी
सारा अन्तस भर देता है,
अपने हाथों से अखियां पोछें
आँचल हुए अपनों के दूर हैं।
देखो ये मजदूर हैं ।।
अरमां इनके सीने में दफन हैं
सारे सुख मेहनत की रहन हैं
आँखों के सारे सपने इनकी
आँखों में ही चूर हैं।।
देखो ये मजदूर हैं ।।
माथे पे पसीना है इनके
नैनों में उदासी छाई है
किससे पूछें, कौन बताए,
खोई कहाँ तरुणाई है
बेरंग हुई है रंगत अब
हुए चेहरे बेनूर हैं।
देखो ये मजदूर हैं ।।
***


  • आशा

निराशओं के घने बादल छटेंगे एक दिन
बिछड़े मीत हमसे मिलेंगे एक दिन
तुम आस की शमां जलाए हुए रखना
इस लौ से नवदीप जलेंगे एक दिन
हौंसला हो दिल में रहे लक्ष्य पे नज़र
आज रुके कदम, फिर बढ़ेंगे एक दिन
सींचते रहना प्यार से तुम उनकी सरज़मीं
सूखे दरख्तों में भी फूल खिलेंगे एक दिन।।
***

-हेमन्त रिछारिया

कविता-3

माँ

दे थपकियाँ प्यार से,
साथ लोरी के सुलाया था जिसने
अपनी नर्म पलकों के बीच
ख्वाब सा सजाया था जिसने
गली मुहल्लों के बच्चों से
लड़ते हुए छुड़ाया था जिसने
बहते घावों पर अपने हाथों से
मरहम लगाया था जिसने
बाबा की डाँट के डर से
आँचल की ओट में छिपाया था जिसने
मचल जाने पर चंदा मामा की-
कहानियों से बहलाया था जिसने
शरारत करने पर-
काले चोर से डराया था जिसने
रूठ जाने पर-

दे गालों पे चुंबन मनाया था जिसने
बुरी नज़र से बचाने के लिए
काजल का टीका लगाया था जिसने
स्वागत में बहू के झट
आरती का थाल सजाया था जिसने
वो ममता का सागर,
वो प्यार का घना साया
आज तन्हाई में ए–दिल
तुझे ये कौन याद आया !
***

-हेमन्त रिछारिया

कविता- 4

  • मधुमास बने हम
क्यों इच्छा के दास बने हम
क्यों जग के परिहास बने हम
फैलाएँ अपने पंख और फिर
उन्मुक्त धवल आकाश बने हम।
शूलों से कैसा डरना है
ये तो पल भर का सपना है
आ खिलाएँ हृदय प्रसून अपना
फिर उड़ती हुई सुवास बने हम।
तोड़ निराशा के बंधन को
पग पग के इस क्रंदन को
जो उठता है दिल में रह रहकर
क्यों न वही विश्वास बने हम।
न बसने दें दिल में आहों को
थामें हम सबकी बाहों को
स्पंदित करे जो प्राणों को
ऐसा मधुर अहसास बने हम।
माना कि पतझर आता है
खिला फूल मुरझा जाता है
इस ऋतु का भी साथ निभा
आने वाला मधुमास बने हम।
***
-हेमन्त रिछारिया

24 May 2005

प्रतिक्रिया

नर्मदा तीरे पर पहुँचे gg